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सती प्रथा—एक घिनौना कृत्य

Updated: Dec 12, 2024

सती प्रथा का नाम सुनते ही दिमाग में एक भयानक और अमानवीय छवि उभरती है। एक ऐसी प्रथा जो समाज के पतन और स्त्री के शोषण का जीता-जागता उदाहरण है। आज भी, कुछ लोग सती प्रथा का गुणगान करते नहीं थकते और इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा मानकर महिमामंडित करते हैं। लेकिन सच्चाई बहुत ही कड़वी और घिनौनी है। इस परंपरा का कोई धार्मिक आधार नहीं है, न ही इसे किसी स्वस्थ समाज का हिस्सा माना जा सकता है। दरअसल, सती प्रथा समाज की कुंठा से उपजी एक अत्याचारपूर्ण कुरीति है जो स्त्री को उसके अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित करने का एक भयानक प्रयास रही है।


सती प्रथा का सीधा अर्थ है एक महिला का अपने पति की चिता पर जलकर स्वयं को “त्याग देना,” जो कि अपने आप में एक अमानवीय कृत्य है। 

इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि इसका उद्देश्य कभी भी स्त्रियों का सम्मान नहीं था, बल्कि ये समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है जो महिलाओं को महज संपत्ति के रूप में देखती थी। जब कोई पुरुष अपने जीवन से गुजरता, तो उसकी पत्नी को भी उसकी संपत्ति मानकर जिंदा जलाने का निर्णय लिया जाता। इसे किसी भी रूप में सम्मानजनक मानना या उसे संस्कृति के नाम पर सही ठहराना एक बेहद घृणास्पद सोच है।


इस प्रथा के पीछे तथाकथित धार्मिक और सांस्कृतिक तर्क दिए गए हैं, लेकिन इसका कोई ठोस धार्मिक आधार नहीं है।

वेदों और प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में कहीं भी सती प्रथा को समर्थन नहीं दिया गया है। इसे एक समाज द्वारा स्वीकृत करने की वजहें राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक कुंठाओं से जुड़ी रही हैं। जब पुरुष किसी राज्य का राजा बनता था, तो उसकी मृत्यु के बाद यह सुनिश्चित करने के लिए कि उसकी संपत्ति या अधिकार किसी और को न मिले, उसकी पत्नी को भी उसी के साथ जला दिया जाता था ताकि भविष्य में कोई चुनौती देने वाला न बचे।


यह कुरीति महिलाओं के जीवन को अमानवीयता की हद तक ले गई। उस समय महिलाएं शिक्षा और जागरूकता से वंचित थीं और उनके पास विरोध करने का कोई साधन नहीं था। उन्हें यह समझाया जाता कि पति की मृत्यु के बाद सती हो जाना एक देवीय कार्य है और उन्हें “देवी” का दर्जा मिलेगा। लेकिन सच्चाई यह थी कि उस महिला का असहनीय दर्द, भय, और तड़प किसी को नहीं दिखता था। समाज की परंपराओं और खोखले रीति-रिवाजों के चलते कई महिलाओं को अपनी जान गंवानी पड़ी।


यदि हम सती प्रथा को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें, तो पता चलता है कि यह एक समय में पूरे भारतवर्ष में प्रचलित थी, विशेष रूप से राजपूताना और बंगाल जैसे राज्यों में। बहुत-सी रानियों को युद्ध के बाद अपने पतियों के साथ सती होने के लिए मजबूर किया गया ताकि दुश्मन उन्हें अपमानित न कर सकें। लेकिन इसे वीरता या सम्मान का प्रतीक मानना मूर्खता है, क्योंकि यह एक स्वेच्छा का कार्य नहीं था।


1829 में, अंग्रेजों ने राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों के प्रयासों के बाद इसे कानूनन प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन यह एक सामाजिक मानसिकता का हिस्सा बन चुका था जिसे बदलने में कई साल लग गए। राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, इसके पीछे का घिनौना सच दुनिया के सामने लाए और इसके अमानवीय पहलू को उजागर किया। उन्होंने सती प्रथा को रोकने के लिए सरकार पर दबाव डाला, जिसके परिणामस्वरूप लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित किया।


दुख की बात यह है कि सती प्रथा की मानसिकता पूरी तरह से आज भी नहीं बदली है।कुछ क्षेत्रों में इसे सम्मानजनक दृष्टिकोण से देखा जाता है और इसे एक वीरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 

यह सोच हमारी समाज की उस मानसिकता को दर्शाती है जो महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने में असमर्थ है। यह कुरीति हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम महिलाओं के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को लेकर कितने गंभीर हैं।


आज जरूरत है कि हम सती प्रथा जैसे घिनौने कृत्यों का महिमामंडन करने से पहले उसकी सच्चाई और उसके परिणामों पर विचार करें। यह प्रथा न तो किसी सम्मान का प्रतीक है, न ही किसी महान परंपरा का हिस्सा। हमें इसे इतिहास के काले पन्नों में हमेशा के लिए दफन कर देना चाहिए और इसे किसी भी रूप में आदर्श नहीं मानना चाहिए।


सती प्रथा न केवल महिला अधिकारों का हनन है बल्कि मानवता का भी हनन है। इसके बारे में जागरूकता फैलाना और समाज में इसके प्रति सही दृष्टिकोण लाना हमारी जिम्मेदारी है। आज, सती प्रथा को जड़ से समाप्त हुए दो सदियां बीत चुकी हैं, लेकिन हमारे समाज को इस बात का अहसास होना चाहिए कि यह एक कलंक है जिसे हम गर्व से कभी नहीं अपना सकते।


अतः, यह जरूरी है कि हम सती प्रथा जैसे कृत्यों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाएं और इसे कभी भी संस्कृति या परंपरा के नाम पर महिमामंडित न होने दें। सती प्रथा एक घिनौना कृत्य थी, और इसे इतिहास में वैसा ही दर्ज किया जाना चाहिए—एक अमानवीय और शर्मनाक अध्याय, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियाँ सबक ले सकें और एक समानता और न्याय की दिशा में आगे बढ़ सकें।

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