नज़्म
ज़िना-बिल-जब्र

जिस्म तार तार है
लहू के थक्के यहाँ वहाँ
दिमाग पे चोट
रूह पे खरोंचें
ज़हन में छटपटाहट
बदन ख़ामोश है
एक चीख़ दब के रह गई है
खुली आँखें दूर कहीं तकती हैं
सहमा सिकुड़ा अक्स
तूफ़ाँ तहय्या किए
आँसुओं को सब्र है शायद
छिपे हैं पलकों की आड़ लिए
न छलकते हैं
न तोड़ के बहते हैं
अब न ताक़त है
न ज़रूरत है कोई बाक़ी
पल में उजड़ गई है बस्ती
कौन अब इसे बसायेगा
वो पंजों के निशाँ हैं वहाँ
कोई दरिंदा यहाँ से गुज़रा है
दीवार-ओ-दर ख़ामोश
मातम है इंसानियत की मौत का
ये ज़िना-बिल-जब्र है